Diwali: दिवाली हिंदुओं के सबसे प्रमुख त्योहारों में से है। पूरे देश में दिवाली (Diwali) का त्योहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। दिवाली का यह पावन पर्व आने में कुछ ही दिन शेष हैं। हिंदू धर्म में विशेष महत्व रखने वाले इस त्योहार (Diwali) की तैयारियां लोग कई दिनों पहले से ही शुरू कर देते हैं। लोग अपने घरों की साफ सफाई करते हैं और उसे पेंट कराते हैं। इसके बासद लोग अपने घर को अच्छे से सजाते हैं। घर के लिए नए सामान खरीदते हैं। नए कपड़े, मिठाइयां और पटाखे खरीदे जाते हैं। दिवाली के त्योहार का उत्साह बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक में रहता है।
दिवाली (Diwali) की शाम लोग दीयों से अपने घरों को जगमग कर देते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि हमारे देश में ही एक जगह ऐसी भी है, जहां दिवाली (Diwali) नहीं मनाई जाती। इस दिन दिवाली के दिन घरों में अंधेरा रहता है। यहां लोग इस दिन खुशियां मनाने के बजाय शोक मनाते हैं। जहाँ दिवाली (Diwali) को आमतौर पर खुशी, उल्लास और दीपों के त्योहार के रूप में जाना जाता है, वहीं अटारी गांव के लोग इस दिन को शोक दिवस के रूप में मनाते हैं। इस परंपरा के पीछे एक हृदय विदारक घटना जुड़ी हुई है, जिसने इस गांव के लोगों के दिलों में गहरी छाप छोड़ी है।
Diwali पर शोक मनाते हैं लोग:
दिवाली के दिन जहां पूरा देश रोशनी से जगमग रहता है। दिवाली की रात को जहां हर ओर उजाला रहता है, वहीं उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में एक गांव ऐसा भी हैं, जहां दिवाली के दिन लोग शोक मनाते हैं और यहां दिये नहीं जलाए जाते। यहां इस दिन किसी भी घर में कोई पूजा-अर्चना तो दूर घर में दीपक तक नहीं जलाता। आप भी जानकर हैरान हो रहे होंगे कि यहां लोग ऐसा क्यों करते हैं। दरअसल, यह परंपरा यहां सालों से चली आ रही है।
सैंकड़ों सालों से निभा रहे परंपरा:
रिपोर्ट्स के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के मड़िहान तहसील के राजगढ़ इलाके के अटारी गांव में दिवाली के दिन यह परंपरा निभाई जाती है और इस दिन को शोक दिवस के रूप में मनाते है। सिर्फ अटारी गांव में ही नहीं बल्कि इसके आसपास में बसे करीब आधा दर्जन गांव मटिहानी, लालपुर, मिशुनपुर, खोराडीह में दिवाली का त्योहार नहीं मनाते बल्कि शोक मनाते हैं। दरअसल, इन सभी गांवों में करीब आठ हजार लोगों की आबादी है। इन गांवों में रहने वाले लोग चौहान समाज के हैं। ये लोग सैकड़ों साल से इस परंपरा को निभाती चली आ रही है। सैंकड़ों सालों से चली आ रही इस परंपरा को लोग आज भी निभा रहे हैं।
इस वजह से दिवाली के दिन मनाते हैं शोक:
दरअसल, इन गांवों में चौहान समाज के जो लोग रहते हैं, वे खुद को अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान का वशंज बताते हैं। इसके साथ ही इन लोगों का कहना है कि मोहम्मद गौरी ने दिवाली के दिन ही सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हत्या की थी। सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हत्या करने के बाद गौरी ने उनके शव को गंधार में ले जाकर दफनाया था।
इसी वजह से इन गांवों के लोग दिवाली का त्योहार नहीं मनाते। इस दिन यहां लोग अपने घरों में कोई रोशनी नहीं करते। साथ ही दीपावली के पर्व को शोक दिवस के रूप में मनाते हैं। हालांकि इन गांवों के लोग दिवाली की जगह देव दीपावली (एकादशी) के दिन पूजा-अर्चना करते हैं और अपने घरों को रोशन करते हैं।
ना दीये जलाते हैं, ना पटाखे फोड़ते हैं:
अटारी गांव में दिवाली के दिन न तो दीये जलाए जाते हैं, न ही पटाखे फोड़े जाते हैं, न ही मिठाइयों का वितरण होता है। इस दिन गांव के लोग शांत रहते हैं और अपने पूर्वजों की मृत्यु का शोक मनाते हैं। जहां बाकी देश में घरों को सजाया जाता है, वहीं अटारी गांव के घरों में इस दिन अंधेरा रहता है। गांव के लोग इस दिन उपवास करते हैं और गांव के मंदिरों में जाकर पूजा-अर्चना करते हैं।
यह शोक दिवस गांव के लोगों के लिए सिर्फ एक परंपरा नहीं है, बल्कि यह उनके पूर्वजों की स्मृति का सम्मान है। गांव के बुजुर्ग इस दिन को अपनी आने वाली पीढ़ियों के साथ साझा करते हैं, ताकि उन्हें यह समझ में आ सके कि उनके पूर्वजों ने किस प्रकार की यातनाएं सहीं और क्यों इस दिन को शोक दिवस के रूप में मनाया जाता है।